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• आयुर्वेद क्या है History of Ayurveda

History of Ayurveda
History of Ayurveda


आयुर्वेद क्या है History of Ayurveda

आयुर्वेद माता भगवती जगत् जननी जगदम्बा जी की कृपा एवं आशीर्वाद स्वरूप मानव के लिए दीर्घायु का वरदान है। इसकी चर्चा चारों वेदों के एक महत्त्वपूर्ण खण्ड अथर्ववेद के अन्दर भी पूर्णता के साथ आती है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह ज्ञान अति प्राचीन काल से चला आ रहा है। 

हमारे पूर्वज ऋषियों ने आयुर्वेद को पांचवां वेद कहा है। जिससे ”आयु“ अर्थात् उम्र और ”वेद“ अर्थात् ज्ञान और दीर्घायु की प्राप्ति होती है, उसे आयुर्वेद कहते हैं। आयुर्वेद वह विद्या है, जो मानव शरीर या अन्य पशु-पक्षियों के शरीर को स्वस्थ रखते हुए लम्बी उम्र जीने में मदद करता है। आयुर्वेद भारत की प्राचीन कालीन पद्धति हैं। आयुर्वेद की नींव वैदिक युग में ही पड़ चुकी थी। हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि इसके विशेष जानकार थे। उन्होंने इस चिकित्सा पद्धति पर विशेष शोध किया तथा जंगल में उगी वनस्पतियों का परिचय अपने साधना बल से प्राप्त किया फिर उनके गुण दोषों का विवेचन किया, नये तथ्यों को स्पष्ट किया, उनकी उपयोग की विधि ज्ञात की और ऋषि-मुनि यह देखकर आश्चर्य चकित रह गये कि आयुर्वेद विज्ञान (जड़ी-बूटियां) प्रकृतिसत्ता की तरफ से मनुष्य शरीर को एक विशेष वरदान है। इस विज्ञान के माध्यम से प्रकृति सत्ता ने मनुष्य को पूर्ण स्वस्थ रहने की कुंजी प्रदान की है। धन्वन्तरि ऋषि का नाम आज आयुर्वेद जगत् में पूर्ण श्रद्धा से लिया जाता है, क्योंकि उन्होंने ध्यान योग साधना के द्वारा एक ऐसी विधि या सिद्धि हासिल कर ली थी कि जब वे जंगल जाते तो वहां जड़ी-बूटियां स्वतः अपना परिचय देती थीं। वे बताती थीं कि मेरा नाम क्या है और मेरा कौन सा अंग किस रोग को समाप्त करने में पूर्ण समर्थ है। इसी साधना सिद्धि बल पर उन्होंने बहुत बड़ी रिसर्च (खोज) की और उसका विवरण उन्होंने अपने जीवित जाग्रत् शिष्यों व पुस्तकों के माध्यम से समाज को सौंपा। इसके अलावा इस ज्ञान को बढ़ाने में चरक, सुश्रुत, वाग्भट, बंगसेन आदि अनेक ऋषियों ने आयुर्वेद में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

यह भारत का सौभाग्य है कि वर्तमान में अनेकों आयुर्वेद के प्रामाणिक ग्रंथ ज्यादातर छपे हुये संस्करण के रूप में उपलब्ध हैं। परन्तु, दुर्भाग्य भी रहा है कि कई महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथ हमारी नासमझी के कारण लुप्तप्राय हो गये। बचे हुए ग्रंथों में जिन्हें कुछ प्रामाणिक ग्रंथ कह सकते हैं, वे हैं-चरकसंहिता, भावप्रकाश, सुश्रुतसंहिता, वैद्यकप्रिया, माधवनिदान, सारंगधर संहिता, अष्टांगहृदय, योगरत्नाकर, निघंटु, रसतंत्रसार आदि। 

इनमें भी अगर मूल प्रति पहले के छपे ग्रंथ मिल सकें, इसके साथ ही कुछ ज्ञान और आयुर्वेदिक नुस्खे जो शिष्य दर शिष्य चलते गये वे आज भी संन्यासियों या उनके शिष्यों में अन्तर्निहित हैं।

आयुर्वेद के मूल सिद्धांत के अनुसार शरीर में मूल तीन-तत्त्व वात, पित्त, कफ (त्रिधातु) हैं। अगर इनमें संतुलन रहे, तो कोई बीमारी आप तक नहीं आ सकती। जब इनका संतुलन बिगड़ता है, तभी कोई बीमारी शरीर पर हावी होती है। इसी  सिद्धांत को लेकर हमारे ऋषि मुनियों, आयुर्वेदज्ञों ने नुस्खों का आविष्कार किया।
भारत में अनेकों ऐसे आयुर्वेदज्ञ पैदा हुए, जिन्होंने इस पद्धति के द्वारा सैकड़ों रोगियों की सेवा करते हुए धन, यश, कीर्ति प्राप्त की। आयुर्वेदिक चिकित्सा ही एक ऐसी चिकित्सा है, जिसके माध्यम से कम खर्चे में किसी भी रोग को समूल नष्ट किया जा सकता है।

एलोपैथिक या होमियोपैथिक चिकित्सा में तुरन्त तो आराम मिलता है, परन्तु यह निश्चित नहीं कि रोग जड़ से खत्म हो जायेगा। साथ ही एक परेशानी और है कि वह रोग सही हो न हो, परन्तु लगातार दवा लेते रहने पर दूसरा कोई रोग अवश्य शरीर में पनप जाता है। अपितु, आयुर्वेद में ऐसा नहीं के बराबर है। आयुर्वेद में थोड़ी देर अवश्य लगती है, परन्तु कोई नुकसान या साइडइफेक्ट नहीं होता, वरन वह रोग जिसके लिये दवा का सेवन करते हैं (बशर्ते दवा उसी मर्ज की बनी हो व पूर्ण प्रभावक हो), तो वह रोग समूल नष्ट होता ही है। 

वात- 

आयुर्वेदिक ग्रन्थों के अनुसार वात 80 प्रकार का होता है एवं इसी से सामंजस्य रखता हुआ एक और रोग है जिसे बाय या वायु कहते हैं। यह 84 प्रकार का होता है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब वात एवं वायु के इतने प्रकार हैं, तो, यह कैसे पता लगाया जाय कि यह वात रोग है या बाय एवं यह किस प्रकार का है ? यह कठिन समस्या है और यही कारण है कि इस रोग की उपयुक्त चिकित्सा नहीं हो पाती है, जिससे इस रोग से पीड़ित 50 प्रतिशत व्यक्ति सदैव परेशान रहते हैं। उन्हें कुछ दिन के लिए इस रोग में राहत तो जरूर मिलती है, परन्तु पूर्णतया सही नहीं हो पाता है। इस रोग की चिकित्सा एलोपैथी के माध्यम से सम्भव नहीं है, जबकि आयुर्वेद के माध्यम से इसे आजकल 90 प्रतिशत तक सही किया जा सकता है, शेष 10 प्रतिशत माँ भगवती जगत जननी की कृपा से ही सम्भव है।

वात रोग लक्षण एवं परेशानी

इस रोग के कारण शरीर के सभी छोटे-बडे़ जोडो़ं व मांसपेशियों में दर्द व सूजन हो जाती है। गठिया में शरीर के एकाध जोड़ में प्रचण्ड पीड़ा के साथ लालिमायुक्त सूजन एवं बुखार तक आ जाता है। यह रोग शराब व मांस प्रेमियों को सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा जल्दी पकड़ता है। यह धीरे-धीरे शरीर के सभी जोड़ों तक पहुँचता है। संधिवात उम्र बढ़ने के साथ मुख्यतः घुटनों एवं पैरों के मुख्य जोड़ों को क्रमशः अपनी गिरफ्त में लेता हैं।
वातरोग की शुरूआत धीरे-धीरे होती है। शुरू में सुबह उठने पर हाथ पैरों के जोडों में कड़ापन महसूस होता है और अंगुलियाँ चलाने में परेशानी होती है। फिर इनमें सूजन व दर्द होने लगता है और अंग-अंग दर्द से ऐंठने लगता है, शरीर में थकावट व कमजोरी महसूस होती है साथ ही रोगी चिड़चिड़ा हो जाता है। इस रोग की वजह से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम पड़ जाती है। छाती में इन्फेक्शन, खांसी, बुखार तथा अन्य समस्यायें उत्पन्न हो जाती है। साथ ही चलना फिरना रुक जाता है।

इन सबसे खतरनाक कुलंग वात होता है। यह रोग कूल्हे, जंघा प्रदेश एवं समस्त कमर को पकड़ता है एवं रीढ़ की हड्डी को प्रभावित करता है। इस रोग में तीव्र चिलकन (फाटन) जैसा तीव्र दर्द होता है और रोगी बेचैन हो जाता है, यहाँ तक कि इसमें मृत्यु तुल्य कष्ट होता है। यह रोग की सबसे खतरनाक स्टेज होती है। इस का रोगी दिन-रात दर्द से तड़पता रहता है और कुछ समय पश्चात् चलने-फिरने के काबिल भी नहीं रह जाता है। वह पूर्णतया बिस्तर पकड़ लेता है और चिड़चिड़ा हो जाता है। 

रोग से छुटकारा

इस रोग से छुटकारा पाने हेतु कुछ सरलतम आयुर्वेदिक नुस्खे एवं तेल का विवरण नीचे दे रहे हैं। ये नुस्खे 90 प्रतिशत रोगियों को फायदा करते हैं। शेष 10 प्रतिशत अपने पिछले कर्मों की वजह से दुख पाते हैं, जिसमें दवा कार्य नहीं करती।

(1)वातान्तक बटीः-

सोंठ, सुहागा, सोंचर गांधी, सहिजन के संग गोली बांधी। 
80वात 84बाय कहै धनवन्तरि तड़ से जाये।।
सोंठ 50 ग्राम, सुहागा 50 ग्राम, सोंचर (कालानमक) 50 ग्राम, गांधी(हींग) 50 ग्राम, सहिजन (मुनगा) की छाल का रस आवश्यकतानुसार, सबसे पहले कच्चे सुहागे को पीसकर आग में लोहे के तवे पर डालकर भून लें। वह लाई की तरह फूल जायेगा, फूला हुआ सुहागा ही काम में लें। सोंठ, सुहागा एवं कालानमक को कूट-पीसकर एक थाली में डाल लें। फिर दूसरे बर्तन में सहिजन की छाल का रस लें, उसमें हींग घोल लें और जब हींग घुल जाये तो सहिजन की छाल का रस कुछ दूधिया हो जायेगा। उसमें कुटा-पिसा, सोंठ, कालानमक व सुहागा का पाउडर मिला लें। फिर उसकी चने के आकार की गोली बना लें और छाया में सुखाकर बन्द डिब्बे में रख लें। सुबह-दोपहर-शाम दो-दो गोली नाश्ते या खाने के बाद सादा पानी से लें। आपको आराम 10 दिन में ही मिलने लगेगा। कम से कम 30 दिन यह गोलियां लगातार अवश्य खायें।  इस दवा के द्वारा बवासीर के रोगी को भी लाभ मिलता है। 

(2) वात नासक चूर्णः-

चन्दसूर 50 ग्राम, मेथी 50 ग्राम, करैल 50 ग्राम, अजमोद 50 ग्राम, इन चारों दवाओं को कूट-पीसकर ढक्कन वाले डिब्बे में रखें। सुबह नाश्ते के बाद एक चम्मच चूर्ण गुनगुने पानी के साथ लें एवं रात्रि में भोजन के बाद गुनगुने दूध के साथ लें। यह दवा कम से कम 60 दिन लें। आराम मिलता है। 

(3) कुलंगवात (साइटिका)-

मीठा सुरंजान 50 ग्राम, बड़़ी हरड़ का छिलका 50 ग्राम, पठानी लोध्र 50 ग्राम, मुसब्बर 50 ग्राम। इन चारों को कूट-पीसकर डिब्बे में रख लें। इस दवा का एक चम्मच पाउडर पानी के साथ लें। दवा कम से कम 60 दिन तक लें या जब तक पूर्ण लाभ न मिल जाये तब तक लें। इसके खाने से दस्त लग सकते हैं। चिन्ता न करें, न ही दवा बन्द करें, दस्त अपने आप बन्द हो जायेगा एवं रोग भी निर्मूल हो जायेगा, दस्त लगने पर दवा की मात्रा कुछ घटा लें। 
परहेजः- चावल, बैगन, कद्दू, बेसन या चने की बनी वस्तु न खायें तथा तली चीजें या बादी चीजें भी न लें।

(4) वातनाशक काढ़ाः-

हरसिंगार के हरे पत्ते 20 नग को अधकुचला कर 300 ग्राम पानी में डालकर धीमी आँच में पकायें। जब पानी 50 ग्राम रह जाये, तो आग से उतार लें और कपड़े से छानकर दो खुराक बनायें एक खुराक सुबह नास्ता के पहले गरम-गरम पी लें एवं दूसरी खुराक शाम को आग में हल्का गरम कर पी लें। प्रतिदिन नया काढ़ा ऊपर लिखी विधि से बनायें और सुबह शाम पियें। यह क्रिया 30 दिन लगातार करें। वात रोग में आराम होगा।

(5) गठिया(संधिवात)-

आँवला चूर्ण 20 ग्राम, हल्दी चूर्ण 20 ग्राम, असंगध चूर्ण 10 ग्राम, गुड़ 20 ग्राम इन चारों औषधियों को 500 ग्राम पानी में डालकर धीमी आँच में पकाये, जब पानी 100 ग्राम रह जाये तो उसे आग से उतार कर कपड़े या छन्नी से छान लें एवं इस काढ़े की तीन खुराक बनायें। सुबह, दोपहर एवं रात्रि में खाने के बाद पियें। इस प्रकार प्रतिदिन सुबह यह दवा बनायें, लगातार 30 दिन पीने पर गठिया में निश्चित रूप से आराम होता है।
परहेज-ज्यादा तली हुईं, खट्टी, गरिष्ठ चीजें व चावल आदि दवा सेवन के समय न लें।

(6) गठिया की दवाः-

सुरंजान 30ग्राम, चोवचीनी 30ग्राम, सोठ 30ग्राम, पीपरामूल 30ग्राम, हल्दी 30ग्राम, आँवला 50ग्राम, इन सब को कूट-पीसकर चूर्ण बनायें और उसमें 100ग्राम गुड़ मिलाकर रख लें। प्रतिदिन सुबह एवं शाम को 10ग्राम दवा में 10ग्राम शहद मिलाकर खायें। सुबह हल्का नाश्ता करने एवं राात्रि में खाना खाने के बाद ही दवा लें। यह दवा लगातार 30दिन लेने से गठिया वात सही होगा।
परहेज-खट्टी चीजें, गरिष्ठ चीजें, चावल आदि न लें।

(7) वातनाशक तेलः-

100ग्राम तारपीन का तेल, 30ग्राम कपूर, 10ग्राम पिपरमिण्ट, इन सबको मिलाकर धूप में एक दिन रखें। जब यह सब तारपीन में मिल जाये, तो दवा तैयार हो गई। जिन गाठों में दर्द हो, वहां पर यह दवा लगाकर धीरे-धीरे 15मिनट तक मालिश करें और इसके बाद कपड़ा गरम करके उस स्थान की सिकाई कर दें। एक सप्ताह में ही दर्द में आराम मिलने लगेगा। 

(8) वात हेतु तेलः-

500ग्राम सरसों  का तेल (कडुआ तेल), 10ग्राम मदार का दूध, 50ग्राम करील की जड़ का बकला, एक कालाधतूरा का फल, 50ग्राम अमरबेल, 50ग्राम लाजवन्ती पंचमूल, 5ग्राम तपकिया हरताल, 2नग कुचला, इन सब को अधकुचला करके तेल में पकायें। जब ये सब दवायें जल जायें तो तेल उतार लें। इस तेल को गांठो में मलें एवं धूप सेंक करें या तेल लगाकर आग से सेकें। दो या तीन दिनों में यह अपना लाभ दिखायेगा, यह तेल कुलंग बात के लिये भी पूर्णतया लाभदायक है।
नोट-यह तेल जहरीला बनता है। इसलिये इसे आँखों से दूर रखें। आँखों में लगने से पानी निकलने लगता है। इसे गांठों में लगाकर हाथ साबुन से धो लें।

(8) वायगोला का दर्दः-

सफेद अकौवा (मदार), इसे स्वेतार्क भी कहते है। इसका एक फूल को गुड़ में लपेटकर रोगी को खिलाकर पानी पिला दें, आधा घंटे में ही रोगी का दर्द सही हो जायेगा।

पित्त-

यह स्पर्श और गुण में उष्ण होता है, अर्थात् अग्नि रूप होता है एवं द्रव (तरल) रूप में रहता है। इसका वर्ण पीला एवं नीला होता है। यह सत्त्वगुण प्रधान होता है, रस में कटु (चरपरा) और तिक्त (कड़वा) होता है तथा दूषित होने पर खट्टा हो जाता है। 

पित्त प्रकृति के लक्षण

पित्त प्रकृति मनुष्य के बाल समय से पहले ही श्वेत हो जाते हैं, परन्तु वह बुद्धिमान् होता है। उसे पसीना अधिक आता है। उसके स्वभाव में क्रोध अधिक होता है और इस तरह का मनुष्य निद्रावस्था में चमकीली चीजें देखता है।
पित्त के स्थान एवं कार्य

अग्नाशय (पक्वाशय के मध्य) में अग्निरूप (पाचकरूप) परिमाण की स्थिति में रहता है। इसको पाचकपित्त कहते हैं। यह चतुर्दिक आहार को पचाता है। इसका वर्णन इस प्रकार भी किया जा सकता है:
त्वचा (चमड़ी) में जो पित्त रहता है, वह त्वचा में कांति (प्रभा)की उत्पत्ति करता है और शरीर की वाह्य त्वचा पर लगाये हुये लेप और अभ्यंग को पचाता (शोषण करता) है। यह शरीर के तापमान को स्थिर रखता है। इसको श्राजक पित्त कहते हैं।

जो पित्त दोनों नेत्रों में रहकर (कृष्ण-पीतादि) रूपों  का ज्ञान देता है, उसको आलोचक (दिखाने वाला) पित्त कहते है। जो पित्त हृदय में रहकर मेधा (धारणाशक्ति) और प्रज्ञा (बुद्धि) को देता है, वह ‘साधक’ पित्त होता है। 
इस प्रकार नाम और कर्म भेद से पित्त पाँच प्रकार का होता है। और यही पित्त समग्र शरीर को उत्तम रखने का कारण है।

पित्त रोग वर्णन

अब पित्त से होने वाले 40 रोगों का वर्णन किया जाता है:
01. धूमोद्वार- ( डकार से निकलने वाली वायु धुंए  सा प्रतीत होता है )।
02. विदाह- ( इसमें हाथ, पांव, नेत्रादि में जलन होती है )।
03. उष्णाड्डत्व- ( शरीर के अंगों का गरम रहना )।
04. मतिभ्रम- ( पित्त की अत्यधिक वृद्धि से बुद्धि श्रमित हो जाती है )।
05. कांति हानि-( शरीर के वर्ण में मलिनतायुक्त पीतवर्ण का बोध होना )।
06. कंठ शोष- ( कंठ का सूखना )।
07. मुख शोष- ( मुख का सूखना )।
08. अल्प शुक्रता-( वीर्य का अल्प होना )।
09. तिक्तास्यता-( मुख का स्वाद कड़वा रहना )।
10. अम्लवक्त्रता-( मुख का स्वाद खट्टा सा रहे )।
11. स्वेदस्त्राव-( पसीने का अधिक आना )।
12. अंग पाक-( पित्ताधिक्य के कारण शरीर का पक जाना )।
13. क्मल -( परिश्रम के बिना ही थकावट का होना )।
14. हरितवर्णत्व-( पित्त के मलयुक्त होने पर हरा सा वर्ण होता है )।
15. अतृप्ति- ( भोजनादि में तृप्ति नहीं होती )।
16. पीत गात्रता-( अंगों का पीला होना )।
17. रक्त स्त्राव-( रुधिर प्रवृत्ति )।
18. अंग दरण-( अंगों में दरण्वत पीड़ा )।
19. लोह गन्धास्यता-( निःश्वसित श्वास में लोहे की गन्ध का होना )।
20. दौर्गान्ध्य- ( पसीने में दुर्गन्ध का आना )। 
21. पीतमूत्रता-( मूत्र का पीत वर्ण होना )।
22. अरति -( बेचैनी का होना )।
23. पीत विट्कता-( पुरीष का पीत होना )।
24. पीतावलोकन-( पीला ही पीला दिखना )।
25. पीत नेत्रता -( नेत्रों का पीला होना )।
26. पीत दन्तता -( दांतों का पीला होना )। 
27. शीतेच्छा- ( शीतल पदार्थ और शीतल वायु की अभिलाषा सर्वदा होना )।
28. पीतनखता -( नाखूनों का पीला होना )।
29. तेजो द्वेष- ( अत्यंत चमकीली वस्तुओं से द्वेष )।
30. अल्पनिद्रा-( थोड़ी निद्रा का आना )।
31. कोप -( क्रोधी स्वभाव का होना )।
32. गात्रसाद- (अंगों में द्रढता का अभाव )।
33. भिलविट्कता-( पुरीष का द्रव रूप में आना )।
34. अन्धता- ( नेत्र ज्योति का हृास )।
35. उष्णोच्छवास -( वायु का गरम होकर आना )।
36. उष्ण मूत्रता -( मूत्र का गरम होना )।
37. उष्ण मानता -( मल का स्पशौषणा होना )।
38. तमसोदर्शन -( अन्धकार का दिखना )।
39. पीतमण्डल दर्शन-( पीले मण्डलों का दिखना )।
40. निःसहत्व -( सहनशक्ति का अभाव होना )।

इस प्रकार पित्त जनित ये 40 रोग हैः  

पित्त प्रकोप एवं शमन

विदाहि ( वंश, करीरादि पित्त प्रकोपक ), कटु (तीक्ष्ण), अम्ल (खट्टे) एवं अत्युष्ण भोजनों (खानपानादि) के सेवन से, अत्यधिक धूप अथवा अग्नि सेवन से, क्षुधा और प्यास के रोकने से, अन्न के पाचन काल में, मध्याह्न में और आधी रात के समय उपरोक्त कारणों से पित्त का कोप ( पित्त का दुष्ट ) होता है। इन कारणों के विपरीत (उल्टा) आचरण करने से और विपरीत समयों में पित्त का शमन होता है। 

पित्तजनित दोषों को दूर करने हेतु औषधि

1- शतावरी का रस दो तोला में मधु पांच ग्राम मिलाकर पीने से पित्त जनित शूल दूर होता है।
2- हरड, बहेड़ा, आंवला, अमलतास की फली का गूदा, इन चारों औषधियों के काढे़ में खांड़ और शहद मिलाकर पीने से रक्तपित्त और पित्तजनित शूल (नाभिस्थान अथवा पित्त और पित्तजनित शूल ) नाभिस्थान अथवा पित्त वाहिनियों में पित्त संचित और अवरुद्ध होने से उत्पन्न होने वाले शूल को अवश्य दूर करता है। 
नोट-काढ़ा बनाने हेतु दवा के मिश्रण से 16 गुना पानी डालकर मंदआंच में पकायें। जब पानी एक चौथाई रह जाये, तो उसे ठंडा करके पीना चाहिये। इस काढ़ा की मात्रा चार तोला के आसपास रखनी चाहिए।  
3- पीपल (गीली) चरपरी होने पर भी कोमल और शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करती है।
4- खट्टा आंवला, लवण रस और सेंधानमक भी शीतवीर्य होने से पित्त को शान्त करता है।
5- गिलोय का रस कटु और उष्ण होने पर भी पित्त को शान्त करता है।
6- हरीतकी (पीली हरड़) 25 ग्राम, मुनक्का 50 ग्राम, दोनों को सिल पर बारीक पीसकर उसमें 75 ग्राम बहेड़े का चूर्ण मिला लें। चने के बराबर गोलियां बनाकर प्रतिदिन प्रातःकाल ताजाजल से दो या तीन गोली सेवन करें। इसके सेवन से समस्त पित्त रोगों का शमन होता है। हृदयरोग, रक्त के रोग, विषमज्वर, पाण्डु-कामला, अरुचि, उबकाई, प्रमेह, गुल्म आदि अनेक ब्याधियाँ नष्ट होती हैं।
7- 10 ग्राम आंवला रात्रि में पानी में भिगो दें। प्रातःकाल आंवले को मसलकर छान लें। इस पानी में थोड़ी मिश्री और जीरे का चूर्ण मिलाकर सेवन करें। तमाम पित्तरोगों की रामबाण औषधि है। इसका प्रयोग 15-20 दिन करना चाहिए।
8- शंखभस्म 1ग्राम, सोंठ का चूर्ण आधा ग्राम, आँवला का चूर्ण आधा ग्राम, इन तीनों औषधियों को शहद में मिलाकर सुबह खाली पेट एवं शाम को खाने के एक घण्टे बाद लेने से अम्लपित्त दूर होता है।

कफ-

आयुर्वेद के मतानुसार कफ चिकना, भारी, सफेद, पिच्छिल (लेसदार) मीठा तथा शीतल(ठंडा) होता हैं। विदग्ध(दूषित) होने पर इसका स्वाद नमकीन हो जाता है। कफ से सम्बन्धित तकलीफ लगभग 31 प्रतिशत लोगों को रहती है। 

कफ के स्थान, नाम और कर्म

आमाशय में, सिर (मस्तिष्क) में, हृदय में और सन्धियों (जोड़ों) में रहकर शरीर की स्थिरता और पुष्टि को करता है।
1- जो कफ आमाशय में अन्न को पतला करता है, उसे क्लेदन कहते हैं।
2- जो कफ मूर्धि (मस्तिष्क) में रहता है, वह ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त और स्निग्ध करता है। इसलिए उसको स्नेहन कफ कहते हैं।
3- जो कफ कण्ठ में रहकर कण्ठ मार्ग को कोमल और मुलायम रखता है तथा जिव्हा की रस ग्रन्थियों को क्रियाशील बनाता है और रस व ज्ञान की शक्ति उत्पन्न करता है,उसको रसन कफ कहते हैं।
4- हृदय में (समीपत्वेन उरःस्थित)रहने वाला कफ अपनी स्निग्धता और शीतलता से सर्वदा हृदय की रक्षा करता है। अतः उसको अवलम्बन कफ कहते हैं।
5- सन्धियों (जोड़ों) में जो कफ रहता है, वह उन्हें सदा चिकना रखकर कार्यक्षम बनाता है। उसको संश्लेष्मक कफ कहते है। 

कफ जनित रोग 

 01- तन्द्रा
 02-अति निद्रा
 03- निद्रा
 04-मुख का माधुर्य - मुख के स्वाद का मीठा होना 
 05-मुख लेप - मुख का कफ से लिप्त रहना 
 06- प्रसेतका -मुख से जल का श्राव होना
 07- श्वेत लोकन - समस्त पदार्थो का सफेद दिखना
 08- श्वेत विट्कता - पुरीष का श्वेत वर्ण होना 
 09- श्वेत मूत्रता - मूत्र के वर्ण का श्वेत होना
10- श्वेतड़वर्णता - अंगो के वर्ण का श्वेत होना
11- शैत्यता- शीत प्रतीति
12- उष्णेच्छा - उष्ण पदार्थ और उष्णता की इच्छा
13- तिक्त कामिता - कड़वे और तीखे पदार्थों की अभिलाषा
14- मलाधिक्य - मल की अधिकता 
15- बहुमूत्रता -मूत्र का अधिक आना
16- शुक्र बहुल्यता- वीर्य की अधिकता
17- आलस्य - आलस्य अधिक आना
18- मन्द बुद्धित्व- बुद्धि की मन्दता
19- तृप्ति - भोजनेच्छा का अभाव
20- घर्घर वाक्यता - वर्णों के स्पष्टोचारण का अभाव तथा जड़ता।

कफ प्रकोप और शमन-

मधुर (मीठा), स्निग्ध (चिकना), शीतल (ठंडा) तथा गुरु पाकी आहारों के सेवन से प्रातःकाल में भोजन करने के उपरान्त में परिश्रम न करने से श्लेष्मा (कफ) प्रकुपित होता है और उपरोक्त कारणों के विपरीत आचरण करने से शान्त होता है।

कफ प्रकृति के लक्षण-

कफ प्रकृति मनुष्य की बुद्धि गंभीर होती है। शरीर मोटा होता है तथा केश चिकने होते हैं। उसके शरीर में बल अधिक होता हैं,  निद्रावस्था में जलाशयों (नदी, तालाब आदि) को देखता है, अथवा उसमें तैरता है।
कफ रोग निवारक दवायें

1-सर्दी व जुकाम

कालीमिर्च का चूर्ण एक ग्राम सुबह खाली पेट पानी के साथ प्रतिदिन लेते रहने से सर्दी जुकाम की शिकायत दूर होती है।

2-खांसी में आराम

दो लौंग कच्ची, दो लौंग भुनी हुई को पीसकर शहद में मिलाकर सुबह खाली पेट एवं रात्रि में खाने के आधा घंटे के बाद लें, कफ वाली खांसी में आराम आ जायेगा। 

3- श्वासनाशक कालीहल्दी

कालीहल्दी को पानी में घिसकर एक चम्मच लेप बनायें।। एक चम्मच शहद के साथ सुबह खाली पेट दवा नित्य 60 दिन खाने से दमारोग में आराम हो जाता है।

4- कफ पतला हो तथा सूखी खांसी सही हो

शिवलिंगी, पित्तपापड़ा, जवाखार, पुराना गुड़, यह सभी बराबर भाग लेकर पीसें और जंगली बेर के बराबर गोली बनायें। एक गोली मुख में रखकर उसका दिन में दो तीन बार रस चूसें। यह कफ को पतला करती है, जिससे कफ बाहर निकल जाता है तथा सूखी खांसी भी सही होती है।  

5- दमा रोग

20 ग्राम गौमूत्र अर्क में 20 ग्राम शहद मिलाकर प्रतिदिन सुबह खाली पेट 90 दिन तक पीने से दमारोग में आराम हो जाता है। इसे लगातार भी लिया जा सकता है, दमा, टी.वी. हृदयरोग एवं समस्त उदर रोगों में भी लाभकारी है।

6- कुकुर खांसी

धीमी आंच में लोहे के तवे पर बेल की पत्तियों को डालकर भूनते-भूनते जला डालें। फिर उन्हें पीसकर ढक्कन बन्द डिब्बे में रख लें और दिन में तीन या चार बार सुबह, दोपहर, शाम और रात सोते समय एक माशा मात्रा में 10 ग्राम शहद के साथ चटायें, कुछ ही दिनों के सेवन से कुकुरखांसी ठीक हो जाती है। यह दवा हर प्रकार की खांसी में लाभ करती है।

7- गले का कफ

पान का पत्ता 1 नग, हरड़ छोटी 1 नग, हल्दी आधा ग्राम, अजवायन 1 ग्राम, कालानमक आवश्यकतानुसार, एक गिलास पानी में डालकर पकायें आधा गिलास रहने पर गरम-गरम दिन में दो बार पियें । इससे कफ पतला होकर निकल जायेगा। रात्रि में सरसों के तेल की मालिश गले तथा छाती व पसलियों में करें।

8- खांसी की दवा-

भूरीमिर्च 5 ग्राम, मुनक्का बीज निकला 20 ग्राम, मिश्री 20 ग्राम, छोटीपीपर 5 ग्राम तथा छोटीइलायची 5 ग्राम, इन सभी को पीसकर चने के बराबर गोली बना लें। सुबह एक गोली मुँह में डाल कर चूसें। इसी तरह दोपहर और शाम को भी चूसें। कफ ढ़ीला होकर निकल जाता है और खांसी सही हो जाती है। 

9- गला बैठना

दिन में तीन या चार बार कच्चे सुहागे की चने बराबर मात्रा मुंह में डालकर चूसें। गला निश्चित ही खुल जाता है और मधुर आवाज आने लगती है। गायकों के लिए यह औषधि अति उत्तम है।

10-श्वास

पीपल की छाल को रविपुष्य या गुरुपुष्य के दिन सुबह न्यौता देकर तोड़ लाएं और सुखाकर रख लें। माघपूर्णिमा को बारह बजे रात में कपिला गाय के दूध में चावल की खीर बनाकर उसमें एक चुटकी दवा डाल लें और चांदनी रात में तीन घंटे रखकर मरीज को खिलाएं श्वासरोग के लिए लाभकारी है।

कब्ज रोग एवं उपचार-

कब्ज शरीर के समस्त रोगों की जड़ है। कब्ज का संबंध पाचनक्रिया से है। जब मानव शरीर की पाचनक्रिया बिगड़ जाती है, अर्थात् जो भोजन हम करते हैं, वह सही ढंग से न पचना, आंतों में फंसा रह जाना, जिसकी वजह से गैस बनना, पेट में दर्द रहना, मिचली आना, शौच जाने में समय लगना एवं पेट साफ न होना, दिन में तीन चार बार शौच जाना, पेट गुडगुडा़ना, बदबूदार गैस निकलना और खट्टी डकारें आना आदि अनेकों परेशानियां पैदा हो जाती हैं, जिससे नये-नये रोगों की उत्पत्ति होती है। मानव शरीर को जरूरी है कि वह इन परिस्थितियों से बचे, तभी पूर्ण स्वस्थ्य रह सकते हैं। नीचे कब्ज रोग दूर करने हेतु कुछ नुस्खे दिए जा रहे हैं, जो प्रामाणिक एवं अनुभूत हैं-
1-  त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आंवला) तीनों समान मात्रा में कूट पीसकर रख लें। 3 ग्राम से 5 ग्राम तक की मात्रा रात्रि में सोते समय गुनगुने पानी के साथ लें। लगातार कुछ दिनों तक लेने से लाभ अवश्य देगा। साथ ही रात्रि में तांबे के पात्र में पानी रख लें एवं सुबह उसे पी लें। इसके दस मिनट बाद शौच जायें, आराम से पेट साफ होगा।
 2-  पंसारी के यहां से छोटी हरड़ ले लें। प्रतिदिन कम से कम दो या तीन हरड़ अवश्य चूसें, चूस कर ही यह पेट में जाय। लगातार कुछ दिन इसका प्रयोग करने पर हर तरह की कब्ज दूर हो जाती है।
 3-  त्रिफला 25ग्राम, सौंफ 25ग्राम, सोंठ 5ग्राम, बादाम 50ग्राम, मिश्री 20ग्राम लें और गुलाब के फूल 50 ग्राम लें। सभी को कूट-पीसकर एक शीशी में रख लें। रात्रि में सोते समय 5 से 7ग्राम तक दवा दूध या शहद के साथ लें। यह नुस्खा अपने आपमें चमत्कारी है। इस नुस्खे से न आंतों की खुश्की का डर रहता है और न ही कमजोरी का।
नोटः-जिन्हें कब्ज की शिकायत हो, वे ध्यान दें कि वे गरिष्ठ चीजें, तली चीजें, उरद आदि का सेवन कम मात्रा में करें। गेहूं का आटा भी ज्यादा महीन न पिसायें और चोकर न निकालें। आठवां हिस्सा गेहूं में चना मिला आटे की रोटी का सेवन करें। थोड़ा मेहनत या योग आदि जरूर करें। पानी ज्यादा से ज्यादा पियें, पूर्ण लाभ होगा।

पाण्डु रोग (पीलिया)  

चरक ऋषि ने लिखा है कि 
पाण्डुरोगाः स्मृताः पंच वातवित्तकफास्त्रयः। 
चतुर्थः सन्निपातेन पंचमो भक्षणात्मूदः।।
(1) वात का (2) पित्त का (3) कफ का (4) सन्निपात का और (5) मिट्टी का - इस प्रकार पाण्डु (पीलिया) रोग पांच प्रकार का होता है।  

(1) वातज पाण्डु (पीलिया) के लक्षण 

चरक ने लिखा है, बादी करने वाले अन्नपानादि सेवन करने और उपवास आदि करने से वायु कुपित होकर कष्टसाध्य पाण्डु रोग पैदा करती है। इसमें शरीर का रंग रूखा और काला मिला सा हो जाता है। शरीर में दर्द होता है, सुई चुभने की सी पीड़ा होती है, कपकपी आती है, पसलियों और सिर में दर्द होता है, मल सूख जाता है और मुख में विरसता होती है। सूजन, कमजोरी और अफारा होता है। सुश्रुत ऋषि कहते हैं कि वायु के पाण्डु रोग में नेत्रों में पीलापन लिये ललाई होती है।

(2) पित्त पाण्डु (पीलिया) के लक्षण 

चरक ने लिखा है, पित्तकारक आहार-विहार से पित्त कुपित होकर रक्तादि धातुओं को दूषित करके पाण्डु रोग पैदा होता है। पित्त प्रधान पाण्डु रोग में रोगी का रंग हरा या पीला होता है, ज्वर ,दाह, वमन, मूर्छा और प्यास होती है तथा मल-मूत्र पीले होते हैं। रोगी का मुंह कड़वा रहता है, वह कुछ भी खाना नहीं चाहता तथा गर्म और खट्टे पदार्थ सहन नहीं कर सकता। उसे खट्टी डकारें आती है। अन्न विदग्ध होने से शरीर में विद्रोह होता है। बदन से बदबू निकलती है, मल पतला उतरता है, शरीर कमजोर हो जाता है और सामने अंधेरा मालूम होता है। रोगी शीतल पदार्थों या ठण्ड को पसन्द करता है।   

(3) कफज पाण्डु (पीलिया) के लक्षण

चरक ने लिखा है, कफकारी पदार्थों से कफ कुपित होकर रक्तादि धातुओं को बिगाड़कर कफ का पाण्डु रोग पैदा होता है। इसमें भारीपन, तन्द्रा, वमन, सफेद रंग होना, लार गिरना, रोंए खड़े होना, थकान मालूम होना, बेहोशी, भ्रम, श्वास, आलस्य, अरुचि, आवाज रुकना, गला बैठना, मूत्र, नेत्र और विष्ठा का सफेद होना, रूखे, कड़वे और खट्टे पदार्थों  का अच्छा लगना, सूजन और मुँह का जायका नमकीन सा रहना-ये लक्षण होते हैं।

(4) सन्निपातज पाण्डु (पीलिया) के लक्षण 

यह सब तरह के अन्नों के सेवन करने वाले मनुष्य के दूषित हुये तीनों दोषों से उपर्युक्त तीनों दोषों के लक्षणों वाला, अत्यन्त असह्य घोर पाण्डु रोग होता है। सन्निपात के पाण्डु रोग वाले को तन्द्रा, आलस्य, सूजन, वमन, खांसी, पतले दस्त, ज्वर, मोह, प्यास, ग्लानि और इन्द्रियों की शक्ति का नाश, जैसे लक्षण होते है।

(5) मिट्टी खाने से हुये पाण्डु के लक्षण

जिस मनुष्य का मिट्टी खाने का स्वभाव पड़ जाता है, उसके वात, पित्त और कफ कुपित हो जाते है। कसैली मिट्टी से वायु कुपित होती है, खारी मिट्टी से पित्त कुपित होता है और मीठी मिट्टी से कफ कुपित होता है। खारी मिट्टी पेट में जाकर रसादिक धातुओं को रूखा कर देती है। जब रूखापन पैदा हो जाता है, तब जो अन्न खाया जाता है, वह भी रूखा हो जाता है। फिर वही मिट्टी पेट में पहुँचकर बिना पके रस को रस बहाने वाली नसों में ले जाकर नसों की राह बन्द कर देती है। जब रक्त बहाने वाली नसों की राहें रुक जाती हैं, शरीर की कान्ति, तेज और ओज क्षीण हो जाते है, तब पाण्डु रोग पैदा होता है। पाण्डु रोग होने से बल, वर्ण और अग्नि का नाश होता है।

ऐलोपैथी के मतानुसार:-

ऐलोपैथी में पीलिया या कामला को जॉण्डिस( रंनदकपबम ) कहते हैं। इसमें आंखों के श्वेत पटल, त्वचा तथा श्लेष्मा का रंग पीला हो जाता है। यह पीलापन रक्त में पाये जाने वाले एक रंजक पदार्थ ‘बिलिरुबिन‘ (पित्त-अरुण) की अधिकता से होता है। लाल रक्त कण बनने की क्रिया में ही कोई गड़बड़ी हो जाती है तथा यकृत सही ढंग से काम नहीं करता। 

लक्षण

पहले आंखों का श्वेत होना फिर चेहरा, गर्दन, हाथ-पैर, और पूरे शरीर में पीलापन हो जाना, तालू भी पीला हो जाता है, लम्बी अवधि तक रहने वाले पीलिया में त्वचा का रंग गहरे हरे रंग का हो जाता है। मल अधिक मात्रा में होता है। पसीना भी पीला रंग का होता है। नाड़ी धीमी चलती है तथा आसपास की सभी चीजें पीली दिखाई देती हैं।  

पाण्डु रोग के पहले के लक्षण 

जब पाण्डु होने वाला होता है, तब चमड़ी का फटना, बारम्बार थूकना, अंगों का जकड़ना, मिट्टी खाने पर मन चलना, आंखों पर सूजन आना, मल और मूत्र का पीला होना तथा अन्न का न पचना-ये लक्षण पहले ही नजर आते हैं। 

पीलिया रोग निवारण अनुभूत नुस्खे 


  • फूल फिटकरी का चूर्ण 20ग्राम लेकर उसकी 21पुड़िया बना लें। एक पुड़िया की आधी दवा को सुबह मलाई निकले 100 ग्राम दही में चीनी मिलाकर खाली पेट सुबह खा लें। इसी प्रकार रात्रि में सोते समय बकाया आधी पुड़िया खा लें। इस प्रकार 21दिन लगातार दवा खाने से पीलिया रोग सही हो जाता हैं। 
  • नोट- 50ग्राम सफेद फिटकरी गर्म तवा में भून लें। जब उसके अन्दर का पानी सूख जाये, तो उसे पीसकर रख लें, वह ही फूल फिटकरी है। जब तक मरीज यह दवा खाता है, तब तक अगर गन्ने का रस मिल सके, तो जरूर पियें। यह योग पूर्णतः परीक्षित है। 
  • कुटक 1तोला, मुनक्का 1तोला, त्रिफला आधा तोला को रात को पानी में भिगोएं। सुबह पीसकर दिन में दो बार चीनी मिलाकर 21दिन लगातार लेते रहने से पीलिया में आराम मिलता है। 
  • मूली के पत्तों के 100ग्राम रस में 20ग्राम चीनी मिलाकर पिलायें। साथ ही मूली, सन्तरा, पपीता, तरबूज, अंगूर, टमाटर खाने को दें। साथ ही गन्ने का रस पिलायें और पेट साफ रखें। पीलिया में आराम जरूर मिलेगा।

नोट- वैसे तो सभी नुस्खे पूर्णतः निरापद हैं, परन्तु फिर भी इन्हें किसी अच्छे वैद्य से समझकर व सही दवाओं का चयन कर उचित मात्रा में सेवन करें, तो ही अच्छा रहेगा। गलत रूप से किसी दवा का सेवन नुकसान दायक भी हो सकता है। ऐसी स्थिति में लेखक जिम्मेदार नही होंगे।
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